Crumbling Classrooms Crisis: Jhalawar School Tragedy से उठे सुरक्षित शिक्षा पर सवाल
28 Dec, 2025
Jhalawar, Rajasthan
झालावाड़ ज़िले के मनोहरथाना थाना क्षेत्र के पिपलोडी गाँव में सरकारी उच्च प्राथमिक विद्यालय की इमारत ढहने की दर्दनाक घटना ने पूरे ज़िले ही नहीं, बल्कि राजस्थान और देशभर को झकझोर कर रख दिया है। इस हादसे में **सात बच्चों की मौत** हो गई, जबकि **28 से अधिक छात्र घायल** हुए, जिनमें कई की हालत गंभीर बताई जा रही है[1][3]। सुबह की प्रार्थना सभा से ठीक पहले, कक्षा 6 और 7 के कमरों वाला पुराना हिस्सा अचानक भरभराकर गिर पड़ा और करीब 35 बच्चे मलबे के नीचे दब गए[1]।
हादसे के बाद स्कूल परिसर चीख–पुकार से गूंज उठा। माता–पिता, ग्रामीण और शिक्षक बिना आधिकारिक मदद का इंतज़ार किए अपने हाथों से मलबा हटाकर बच्चों को निकालने में जुट गए[1]। कई घायल बच्चों को एंबुलेंस के आने से पहले ही निजी वाहनों से अस्पताल पहुंचाया गया। ज़िला अस्पताल में नौ बच्चों को आईसीयू में भर्ती किया गया और कई का ऑपरेशन किया गया[1]।
प्राथमिक जाँच में सामने आया कि स्कूल की यह इमारत साल 1994 में पंचायती राज विभाग के जरिए बनाई गई थी और लंबे समय से इसकी मरम्मत नहीं हुई थी। शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने माना कि पुरानी बिल्डिंग की हालत कमजोर थी और हाल की भारी बारिश से उसमें और दरारें आ गई थीं[1]। 2011 में बना नया कमरा तो सुरक्षित रहा, लेकिन मरम्मत के लिए प्रस्तावित पुराना हिस्सा ही ढह गया[1]। स्थानीय ग्रामीणों का आरोप है कि वे लोग कई बार स्कूल की जर्जर हालत को लेकर अधिकारियों को आगाह कर चुके थे, लेकिन “कागज़ी कार्रवाई” से आगे कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया[1][2]।
हादसे के बाद गुस्साए ग्रामीणों ने मनोहरथाना–अकलेरा मार्ग को बुराड़ी चौराहे पर जाम कर प्रशासन के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की और मुआवज़े के साथ ज़िम्मेदार अधिकारियों पर सख़्त कार्रवाई की मांग की[1][2]। प्रदर्शनकारियों ने आरोप लगाया कि अगर समय रहते भवन की मरम्मत हो जाती तो आज ये बच्चे ज़िंदा होते[2]। पीड़ित परिवारों ने प्रति मृतक छात्र **1 करोड़ रुपये मुआवज़ा** और एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की मांग रखी है[2]।
घटना के बाद शिक्षा विभाग ने स्कूल की हेडमास्टर मीना गर्ग और चार शिक्षकों – जावेद अहमद, रामविलास लववंशी, कन्हैयालाल सुमन और बद्रीलाल लोढ़ा – को निलंबित कर दिया[1]। इस कदम ने पूरे प्रदेश के शिक्षक संगठनों में नाराज़गी पैदा कर दी है। उनका कहना है कि भवन की संरचनागत खामियों की तकनीकी ज़िम्मेदारी अभियंताओं और निर्माण एजेंसियों की होती है, न कि शिक्षकों की[5]। संघों का आरोप है कि सरकार असली दोषियों की बजाय शिक्षकों को “बलि का बकरा” बना रही है[5]।
दबाव बढ़ने के बाद समग्र शिक्षा अभियान (SMSA) के अधिकारियों ने ज़िला कलेक्टरों को निर्देश दिया है कि वे पीडब्ल्यूडी और अन्य विभागों के साथ मिलकर स्कूल भवनों की **त्रैमासिक निरीक्षण समितियाँ** बनाएं, ताकि समय रहते जर्जर इमारतों की पहचान कर मरम्मत कराई जा सके[5]। अधिकारियों का कहना है कि ज़मीनी स्तर पर तकनीकी विशेषज्ञ अब शिक्षकों को यह सिखाएंगे कि कौन सी दीवारें या छतें तुरंत ख़तरे का संकेत देती हैं, ताकि पोर्टल पर दर्ज रिपोर्टों के आधार पर प्राथमिकता से काम हो सके[5]।
घटना ने न्यायपालिका को भी झकझोर दिया है। राजस्थान हाई कोर्ट ने इस “दिल दहला देने वाली” त्रासदी पर **स्वत: संज्ञान** लेते हुए केंद्र और राज्य सरकार से विस्तृत रिपोर्ट तलब की है[6]। अदालत ने टिप्पणी की कि न सिर्फ़ राजस्थान, बल्कि कई राज्यों में स्कूल इमारतों की हालत चिंताजनक है और छात्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तत्काल **स्ट्रक्चरल ऑडिट** और जवाबदेही तय करना ज़रूरी है[6]। यह मामला लोकसभा में भी गूंज चुका है, जहाँ विपक्षी सांसदों ने दोषियों पर कड़ी कार्रवाई और व्यापक सुधार की मांग उठाई[6]।
राज्य और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं – राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा, विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्रियों – सभी ने इस हादसे पर गहरा शोक जताया और घायलों के बेहतर उपचार का आश्वासन दिया[1][3]। पर ज़मीन पर उठ रहे सवाल यही हैं कि क्या इस शोक–संवेदना के बाद वाकई स्कूलों की जर्जर इमारतों पर नज़र डाली जाएगी, या पिपलोडी की यह त्रासदी भी कुछ दिनों बाद फ़ाइलों में दबी रह जाएगी।
इस बीच, पिपलोडी और आसपास के गाँवों के अभिभावकों में डर साफ़ दिख रहा है। चंदेलिया जैसे नज़दीकी गाँवों के सरकारी स्कूलों में भी छत टपकने और दीवारें झड़ने की खबरें सामने आई हैं, जहाँ बच्चे रोज़ एक अदृश्य ख़तरे के साये में पढ़ने को मजबूर हैं[4]। हादसे के बाद कई अभिभावक सोच में हैं कि सरकारी स्कूल भेजें भी या नहीं – क्योंकि मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के साथ अब सबसे बड़ा सवाल **सुरक्षित शिक्षा के अधिकार** का हो गया है।
हादसे के बाद स्कूल परिसर चीख–पुकार से गूंज उठा। माता–पिता, ग्रामीण और शिक्षक बिना आधिकारिक मदद का इंतज़ार किए अपने हाथों से मलबा हटाकर बच्चों को निकालने में जुट गए[1]। कई घायल बच्चों को एंबुलेंस के आने से पहले ही निजी वाहनों से अस्पताल पहुंचाया गया। ज़िला अस्पताल में नौ बच्चों को आईसीयू में भर्ती किया गया और कई का ऑपरेशन किया गया[1]।
प्राथमिक जाँच में सामने आया कि स्कूल की यह इमारत साल 1994 में पंचायती राज विभाग के जरिए बनाई गई थी और लंबे समय से इसकी मरम्मत नहीं हुई थी। शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने माना कि पुरानी बिल्डिंग की हालत कमजोर थी और हाल की भारी बारिश से उसमें और दरारें आ गई थीं[1]। 2011 में बना नया कमरा तो सुरक्षित रहा, लेकिन मरम्मत के लिए प्रस्तावित पुराना हिस्सा ही ढह गया[1]। स्थानीय ग्रामीणों का आरोप है कि वे लोग कई बार स्कूल की जर्जर हालत को लेकर अधिकारियों को आगाह कर चुके थे, लेकिन “कागज़ी कार्रवाई” से आगे कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया[1][2]।
हादसे के बाद गुस्साए ग्रामीणों ने मनोहरथाना–अकलेरा मार्ग को बुराड़ी चौराहे पर जाम कर प्रशासन के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की और मुआवज़े के साथ ज़िम्मेदार अधिकारियों पर सख़्त कार्रवाई की मांग की[1][2]। प्रदर्शनकारियों ने आरोप लगाया कि अगर समय रहते भवन की मरम्मत हो जाती तो आज ये बच्चे ज़िंदा होते[2]। पीड़ित परिवारों ने प्रति मृतक छात्र **1 करोड़ रुपये मुआवज़ा** और एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की मांग रखी है[2]।
घटना के बाद शिक्षा विभाग ने स्कूल की हेडमास्टर मीना गर्ग और चार शिक्षकों – जावेद अहमद, रामविलास लववंशी, कन्हैयालाल सुमन और बद्रीलाल लोढ़ा – को निलंबित कर दिया[1]। इस कदम ने पूरे प्रदेश के शिक्षक संगठनों में नाराज़गी पैदा कर दी है। उनका कहना है कि भवन की संरचनागत खामियों की तकनीकी ज़िम्मेदारी अभियंताओं और निर्माण एजेंसियों की होती है, न कि शिक्षकों की[5]। संघों का आरोप है कि सरकार असली दोषियों की बजाय शिक्षकों को “बलि का बकरा” बना रही है[5]।
दबाव बढ़ने के बाद समग्र शिक्षा अभियान (SMSA) के अधिकारियों ने ज़िला कलेक्टरों को निर्देश दिया है कि वे पीडब्ल्यूडी और अन्य विभागों के साथ मिलकर स्कूल भवनों की **त्रैमासिक निरीक्षण समितियाँ** बनाएं, ताकि समय रहते जर्जर इमारतों की पहचान कर मरम्मत कराई जा सके[5]। अधिकारियों का कहना है कि ज़मीनी स्तर पर तकनीकी विशेषज्ञ अब शिक्षकों को यह सिखाएंगे कि कौन सी दीवारें या छतें तुरंत ख़तरे का संकेत देती हैं, ताकि पोर्टल पर दर्ज रिपोर्टों के आधार पर प्राथमिकता से काम हो सके[5]।
घटना ने न्यायपालिका को भी झकझोर दिया है। राजस्थान हाई कोर्ट ने इस “दिल दहला देने वाली” त्रासदी पर **स्वत: संज्ञान** लेते हुए केंद्र और राज्य सरकार से विस्तृत रिपोर्ट तलब की है[6]। अदालत ने टिप्पणी की कि न सिर्फ़ राजस्थान, बल्कि कई राज्यों में स्कूल इमारतों की हालत चिंताजनक है और छात्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तत्काल **स्ट्रक्चरल ऑडिट** और जवाबदेही तय करना ज़रूरी है[6]। यह मामला लोकसभा में भी गूंज चुका है, जहाँ विपक्षी सांसदों ने दोषियों पर कड़ी कार्रवाई और व्यापक सुधार की मांग उठाई[6]।
राज्य और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं – राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा, विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्रियों – सभी ने इस हादसे पर गहरा शोक जताया और घायलों के बेहतर उपचार का आश्वासन दिया[1][3]। पर ज़मीन पर उठ रहे सवाल यही हैं कि क्या इस शोक–संवेदना के बाद वाकई स्कूलों की जर्जर इमारतों पर नज़र डाली जाएगी, या पिपलोडी की यह त्रासदी भी कुछ दिनों बाद फ़ाइलों में दबी रह जाएगी।
इस बीच, पिपलोडी और आसपास के गाँवों के अभिभावकों में डर साफ़ दिख रहा है। चंदेलिया जैसे नज़दीकी गाँवों के सरकारी स्कूलों में भी छत टपकने और दीवारें झड़ने की खबरें सामने आई हैं, जहाँ बच्चे रोज़ एक अदृश्य ख़तरे के साये में पढ़ने को मजबूर हैं[4]। हादसे के बाद कई अभिभावक सोच में हैं कि सरकारी स्कूल भेजें भी या नहीं – क्योंकि मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के साथ अब सबसे बड़ा सवाल **सुरक्षित शिक्षा के अधिकार** का हो गया है।